अंतिम क्षण
अंतिम क्षण मेरे जीवन के
कितने सुहाने होंगे
कोई न होगा साथ हमारे
हम तन्हा ही होंगे
ऐसा नहीं इस दुनियां को हम
छोड़ के चल देंगे
बज़ूद हमारा मिट नहीं सकता
यहीं कहीं पे रहेंगे
चिता पे मुझको जला नहीं सकते
राख़ को मेरी बहा नहीं सकते
सौंप दिया है जिस्म-ओ-जाँ
चाहकर भी दफना नहीं सकते
अपनें हो य बेगाने
सबको ही याद आऊंगा
आप चाहो न चाहो आपके
दिल में बस जाऊंगा
दिल में बस जा —-
इस कविता की सत्यता केवल यह है की मैंने अपनी मौत के बाद अपना मृत शरीर एम्स (ऑल इण्डिया इंस्टिट्यूट ऑफ मैडिकल साइंसिस नई दिल्ली) को मैडिकल रिसर्च के लिए दान कर दिया है I इसलिए कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में तो रहूँगा ही I जो मेरे अपनों मेरे चाहने वालों को यह एहसास दिलाता रहेगा की मेरा बज़ूद इस जमीं पर कहीं है और रहेगा I
दूसरा बरसों पहले मैंने एक कविता लिखी थी ‘ यह साधना टी0 व़ी0 चैनल के लोकप्रिय प्रोग्राम ‘कवियों की चौपाल’ में भी प्रसारित हुई थी और ‘जर्नलिस्ट टुडे नेटवर्क’ पर यह मेरी पहली कविता छपी थी I इसपर कई लोगों,आलोचकों नें उंगली उठाई थी,उनका कहना था की थी कि डायलॉग तो सारे ही मार लेते हैं कोई करके तो दिखाए I अब कोई यह नहीं कह सकता की कवि झूठ लिखते हैं I
मेरी राख़ को
मेरी राख़ को दुनियां वालो
गंगा जी में न बहाना
प्रदूषित हो चुकी बहुत
प्रदूषण और न बढ़ाना
कर्म अगर होंगे अच्छे
तो मिल जाएगी मुक्ति
केवल गँगा जी में बहाने से ही
मुक्ति नहीं मिल सकती
यह है सब बेकार की बातें
ऐसा हो नहीं सकता
किसी के कुकर्मों का अंत
इतना सुखद नहीं हो सकता
गर ऐसा हो जाता तो
हर कोई पापी तर जाता
पाप करनें से यहाँ
कोई न घबराता
कोई न कतराता……
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यह मेरी अपनी सोच है हो सकता है कि रूढ़ीवादीयों,धर्म के ठेकेदारों या मेरे अपने बेगानों को मेरी इस सोच पे कोई ऐतराज़ हो लेकिन मुझे जो उचित लगा लिखा,किया और मुझे अपने फैसले पे कोई गिला,शिकवा कोई अफ़सोस नहीं बल्कि अपने इस फैसले पर फ़क्र है और मुझे सच्चे दिल से चाहने वाले मेरे अपनों को भी होना चाहिए I
दीपक शर्मा कुल्लुवी
9350078399
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