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इंतहा

दीपक 'कुल्लुवी' की कलम से.................
दीपक 'कुल्लुवी' की कलम से.................
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इंतहा

किसी वैश्या को देख
मुझे नफरत नहीं होती
देख उसकी बेबसी
मेरी आँख है रोती
लुटे अरमान उसके
दिल से में महसूस करता हूँ
दर्द की ऐ-दोस्तों
कोई इंतहा नहीं होती
कभी देखा है मछली को
तड़पते  बाहर पानी से
क्या उसको जीने की
कोई आस नहीं होती ?
कभी महसूस करना
दिल के छालों को गुनाहगारो
बेबस नज़रें यूँ ही तो
उदास नहीं होती
दीपक ‘कुल्लुवी’
१४/८/१२.

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